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कलमकार से / रामकृष्ण दीक्षित 'विश्व'

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कलम कार उठ जाग कहा के किस दलदल में बूड़ा है
तेरा सोच विचार धुँआ है तेरा लेखन कूडा है
कई लाख की पलटन तेरी अरे लेखको कवियों की
रोज निकल रही शव यात्रा हाय देश की छवियो की
मंचो पत्रों और पुस्तकों से तू टके कमाता है
पर संकट में फसे देश को सूली में लटकता है
उलटे कलम उस्तरे से तूने जनता को मूडा है
तेरा सोच विचार धुँआ है तेरा लेखन कूडा है

तू लिखता बस हा हां ही ही हाय हाय हूहा है
बना शेर खा लेकिन मार न पाया चूहा है
तू अपनी दुकान सजाए रूपक बड़ा खेचता है
लेकिन अच्छा कहकर मॉल घटिया बेचता है
तेरा सब साहित्य चाय कविता बासी चुडा है
तेरा सोच विचार धुँआ है तेरा लेखन कूडा है

सिर्फ शकल भारतीय से तेरी मिलती जुलती है
मगर अकल की खिड़की तेरी योरोप में ही खुलती है
परदेसी जूठन पर पलने वाले अरे भिकारी सुन
भूल गया तू अपने संतो और फकीरों के सब गुण
तभी चाटती दीमक तुझको लगता तुझे फफूडा है
तेरा सोच विचार धुँआ है तेरा लेखन कूडा है