भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कळजुग / राजू सारसर ‘राज’

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:23, 28 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजू सारसर ‘राज’ |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मिंदरां-मेड़ियां
धोक लगावन्ता
डेरूं-ढोलां रै ढमकै,
जागण-जम्मां जमावंता
पोंगां-पुजारां सूं बूझतां
अैक सुवाल
‘‘थां इणां री सीखां नैं
क्यूं माटी लोका नैं
भौदूं बणावौ।’’
मिलै हरमेस
अैक ई उथळौ
‘‘थां भण्या हो
गुण्या नीं हो,
थां कांई जाणौं?
धोक लगावौ,
परसाद पावौ,
घरां जावौ।’’
म्हरै इण ज्ञान सूं,
म्हैं आं री आस्था तोड़ां’क
म्हरा दिन?