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कसमें खाई हैं मेघों ने / बुद्धिनाथ मिश्र

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कसमें खाई हैं मेघों ने
पास नहीं आने की ।
निकली बाहर नहीं इसी से
गोरी बरसाने की ।

वे रिश्ते-नाते गाँवों के
लोकगीत, वे मेले
सबसे सबका नाता टूटा
पड़े रह गये झूले ।

फुरसत नहीं किसी को
बरगद छैयाँ सुस्ताने की
पनघट को ढूँढ़े वह बेला
गागर छलकाने की ।

इस महाल में ‘राम राम’ तक
करते नहीं पड़ोसी
तरस गया खुलकर हँसने को
मेरा मन परदेसी ।

फिर भी जिद है नगर छोड़कर
गाँव नहीं जाने की
बार-बार एक ही भूल
कर-करके पछताने की ।

जिसने रचा विकास, उसी का
नाम पड़ गया चाकर
मायालोक मुक्ति का सबको
रखता दास बनाकर ।

इच्छा हर भैये की होती
अपने घर जाने की
लेकिन जाए कहाँ नरक से
चिन्ता है दाने की ।