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कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के / शकेब जलाली
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कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के
बदल रहा है जुनूँ ज़ाविये उड़ानों के ।
ये दिल का ज़ख़्म है इक रोज़ भर ही जाएगा
शिग़ाफ़ पुर नहीं होते फ़क़ट चट्टानों के ।
हवा के दश्त में तन्हाई का गुज़र ही नहीं
मेरे रफ़ीक़ हैं मुतरिब गए ज़मानों के ।
कभी हमारे नुकूशे क़दम को तरसेंगे
वो ही जो आज सितारे हैं आसमानों के ।