भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए / शहबाज़ ख्वाज़ा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:24, 29 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहबाज़ ख्वाज़ा |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem>...' के साथ नया पन्ना बनाया)
किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
पहुँच गई है कहाँ जाने बात चलते हुए
सफ़र सफ़र है कभी राएगाँ नहीं होता
सर-ए-सहर चली आई है रात चलते हुए
सुना है तुम भी इसी दश्त-ए-ग़म से गुजरे हो
सो हम ने की है बड़ी एहतियात चलते हुए
हम अपनी उखड़ी हुई साँसों को बहाल करें
कहीं रखे तो सही काएनात चलते हुए
हवा रुकी तो अज़ब हुस्न था मगर ‘शहबाज़’
गिरा गई है कई सूखे पात चलते हुए