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कुंजगलियों में भटकती फिर रही हैं गोपियाँ / रंजना वर्मा

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कुंज गलियों में भटकती फिर रही है गोपियाँ ।
ढूँढ़ती घनश्याम को घर-घर रही हैं गोपियाँ।।

शीश पर माखन भरी मटकी लिए हैं फिर रही
हृदय में उस से निहोरा कर रही हैं गोपियाँ।।

हैं कन्हैया के बिना घर-बाट सब सूने पड़े
अब नहीं उस ओर नजरें कर रही हैं गोपियाँ।।

ढूँढ़ती वृंदा विपिन यमुना पुलिन पर हर जगह
कृष्ण बिन जैसे तड़प कर मर रही हैं गोपियाँ।।

सूर्य-तनया-वारि में एकटक निगाहें देखतीं
श्याम जल में श्याम की छवि भर रही हैं गोपियाँ।।

श्याम के डर से कभी जाती न थीं जिस राह पर
श्याम बिन उस राह जाते डर रही हैं गोपियाँ।।

श्याम अधरों पर धरे जिसको बजाते रात दिन
अब वही मुरली अधर पर धर रही हैं गोपियाँ।।

बिलखती हैं गाय बछड़े फिर रहे हैं दर-ब-दर
देख उन की दीनता दुख कर रही हैं गोपियाँ।।

मोतियों सी जो पिरोयी थीं बनी गलहार थीं
बिखर ब्रज की आज वसुधा पर रही हैं गोपियाँ।।