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कुछ इस तरह शिकंजे में वह सियह वक़्त को कसता है / श्याम कश्यप बेचैन

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कुछ इस तरह शिकंजे में वह सियह वक़्त के कसता है
जैसे पिघले डामर के डबरे में बछड़ा धँसता है

हमलावर तेवर हैं सबके, सब अपनी ही जद में हैं
अपना-अपना अस्ला सबका, अपना-अपना दस्ता है

अपनी रोटी जूझ के, खट के, अपने से ही पाना है
छीना-झपटी के आलम में किसको कौन परसता है

अंदर से ख़ुश हो, कुरेदते हैं वो हमदर्दी जतला
क्या अपने हम मुँह से बोलें हाल हमारा ख़स्ता है

जब भी पाँव धरा उस चौखट के भीतर, तो लगा मुझे
जैसे धागे का कोई रेशा सुई के छेद में फँसता है

काश उठा सकता मैं नीली छतरी-सी भारी छतरी
उपर से झीलों के चेहरे पर तेज़ाब बरसता है