भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ शेर / जावेद अख़्तर

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:00, 23 सितम्बर 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(1)
पुरसुकूं लगती है कितनी झील के पानी पे बत<ref>बतख</ref>
पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिए।
(2)
जो दुश्मनी बखील से हुई तो इतनी खैर है
कि जहर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा।
(3)
बहुत आसान है पहचान इसकी
अगर दुखता नहीं तो दिल नहीं है
(4)
फिर वो शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में
(5)
जो मुंतजिर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा
कि हमने देर लगा दी पलट के आने में।
(6)
मेरा आँगन कितना कुशादा<ref>फैला हुआ</ref> कितना बड़ा था
जिसमें मेरे सारे खेल समा जाते थे

शब्दार्थ
<references/>