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ख़तरा / शलभ श्रीराम सिंह

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चीते की तरह होता ही ख़तरा
गफ़लत का जायजा लेता चुपचाप

दबे पाँव सरकता है
बोलने का मौक़ा दिए बगैर
दबोच लेने को प्रस्तुत

तुम्हारी गफ़लत की गवाही देती
तुम्हारी चीख़
ख़तरे की घाटी में तब्दील हो गयी है अभी-अभी

किसी कहानी में शामिल तुम
शामिल किसी चर्चा में
किसी गप-शप में शामिल
लोगों को ख़तरे से आगाह कर रही हो अब
 

रचनाकाल : 1995, विदिशा

शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।