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गलत ठहरा दिया तुमने / लता अग्रवाल

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कर्तव्य और मर्यादा की
मोटी–मोटी दीवारों में
सदियों घुटती रही
आज जब तोड़कर दीवारों को
आना चाहा बाहर
मेरा आचरण ग़लत ठहरा दिया तुमने।

तुम्हारे शब्द भेदी बाणों की
पीड़ा को सहती रही
कतरा–कतरा बिखरती रही खामोश,
आज जब खोलना चाहा लब
मेरा व्याकरण ग़लत ठहरा दिया तुमने।

जीवन के रंगमंच पर बन कठपुतली
करती रही नर्तन,
तुम्हारी तनी रस्सियों पर
अब जब चाहती हूँ थिरकना, अपनी ताल पर
मेरा अंतकरण मैला बता दिया तुमने।

हर पीड़ा को दफ़न कर
अरमानों की राख तले
मुस्कान लपेटे रही,
दोहरी चादर ओढ़े घुटती रही सदा,
आज जब चाहती हूँ
अपनी सही पहचान ओढ़ना
मेरा आवरण ग़लत ठहरा दिया तुमने।

अपनी भावना-सम्भावना,
वेदना-सम्वेदना की जला होली घुलती रही,
तुम्हारे पौरुष की कैंची ने
कतर दिए पर, मन पंछी के, तड़पती रही
आज जब पाना चाहती हूँ अपना आकाश
तो पर्यावरण ग़लत ठहरा दिया तुमने।