भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग़ज़ब है ये नदी अब भी रुलाती है / हरिराज सिंह 'नूर'

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:39, 24 अप्रैल 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ग़ज़ब है ये नदी अब भी रुलाती है।
बहे क्या-क्या, जब इसमें बाढ़ आती है।

इसे जो मानते हैं, पूजते अब भी,
उन्हीं को ये ज़ियादा ही सताती है।

पुरानी ‘राम-केवट’ की कथाओं को,
बड़ी श्रद्धा से ‘सरयू’ अब भी गाती है।

नहीं मानेगी जनता बहस भी कर लो,
नदी पर जो नये ‘बंधे’ बनाती है।

नदी की रेत में पैदा जो होती हैं,
हमें उन सब्ज़ियों की याद आती है।

सहारा दे नदी जो आम लोगों को,
उसी की तो कथा नानी सुनाती है।

पहाड़ों से निकलती पतली-सी धारा,
वो आगे ‘नूर’ चल गंगा कहाती है।