भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गिर के उठने में सम्भलने में बहुत वक़्त लगा / सिराज फ़ैसल ख़ान

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:43, 20 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सिराज फ़ैसल ख़ान }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <poem> गिर के उठने में सम…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गिर के उठने में सम्भलने में बहुत वक़्त लगा
ग़म-ए-उल्फत से निकलने में बहुत वक़्त लगा

नज़र से गिरने में इक पल नहीं लगा लेकिन
किसी के दिल में उतरने में बहुत वक़्त लगा

मैं इंतज़ार में छत पे खड़ा रहा पहरों
चाँद को आज निकलने में बहुत वक़्त लगा

कितनी दुशवार थीं राहें तेरे इंकार के बाद
अपने घर तक भी पहुँचने में बहुत वक़्त लगा

ख़ुदा ने दुनिया बना दी पलक झपकते ही
मेरा नसीब बदलने में बहुत वक़्त लगा

तेरा अफ़साना-ए-ग़म भी अजीब है 'फ़ैसल'
देखने सुनने समझने में बहुत वक़्त लगा