भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घाटी की पुकार / नरेन्द्र जैन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:41, 28 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र जैन |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> घ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घाटी पुकारती है
यह घाटी की पुकार है
पारदर्शी और धूप से भरी
संतूर, गिटार और बाँसुरी की जुगलबंदी पर टिका है
समूचा अस्तित्व

बहुत पुरानी है यह पुकार
लगभग तीस वर्षों से एकाएक कभी सुनाई दे जाती
दरअसल यह एक ख़ामोशी है जो पुकारती है

वह घाटी कैसी होगी
जहाँ से आ रही यह पुकार

शायद राजकुमार चित्रित कर सकें उसे
और वह उनका सबसे बड़ा लैण्डस्कैप हो

शायद यह घाटी
हमारे भीतर के भूगोल का हिस्सा हो

शायद बज रहे हों वाद्य स्मृतियों में

शायद हो यह पुकार दु:स्वप्नों की

घाटी पुकार रही है
यह घाटी की पुकार है

सबसे तरल
और
मानवीय

(शिवकुमार शर्मा, हरिप्रसाद चौरसिया एवं ब्रजभूषण काबरा की प्रसिद्ध जुगलबंदी 'कॉल ऑफ द वैली' की स्मृति)