भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चल सुबह की बात कर / रूपम झा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:46, 1 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रूपम झा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चल सुबह की बात कर

वो हमारी आंसुओं से बार-बार खेलता
हाथ पांव काटकर जमीन पर धकेलता
ढा रहा है मुद्दतों से हम सबों पर क्यों कहर

निकालना है आदमी को मजहबों के जाल से
देश हिल गया है पूंजीवाद के दलाल से
एक एक जोड़ कर कड़ी नई जमात कर

राजा जी तो आजकल हवा में सैर कर रहे
देश को वे लूटकर थैलियों में भर रहे
आफतें पड़ी यहाँ हमारी रोटी भात पर

अंधेरा हो गया बहुत सियासतों के स्याह से
जिंदगी तबाह है अंधेरी काली राह से
निकाल कोई आफताब रो न काली रात पर