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चौंक उठी मैं / अज्ञेय

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 चौंक उठी मैं, मुझे न जाने क्यों सहसा आभास हुआ-
तेरे स्नेहसिक्त कर ने मेरी अलकों का छोर छुआ!
कितना दु:सह उल्लास हुआ!
टूट गया वह जागृत-स्वप्न कि जिस में मन उलझाये थी-
जाना, वही बुलाता है जिस पर मैं ध्यान जमाये थी।

प्राणों में जिसे बसाये थी।
कहाँ! किसी सूखे-से तरु से पात गिरे थे दो झर कर-
और फरास किसी झोंके से आहत रोये थे सर-सर!
दुख-भरे, दीन पीड़ा-जर्जर!

डलहौजी, सितम्बर, 1934