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चौपाल और बूढ़ा नीम / सुरेश विमल

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गांव की चौपाल का छत्र
बहुत पुराना यह
बूढ़ा नीम
देखता है
अपने अनुभवी आंखों से
पीढ़ियों का उत्कर्ष और पराभव
न्याय और अन्याय
स्वार्थ और त्याग
ईमानदारी और छल
सुनता है बराबर
जन्म के गीत
और मृत्यु का विलाप...

गांव के हर सुख दुख का साक्षी
यह बूढ़ा नीम
पत्तियाँ हिला-हिलाकर
व्यक्त करता है अपना शोक
अपनी प्रसन्नता,
अपना क्षोभ...

अंधा बीरम
रोता है यहीं
इसी नीम की जड़ों से लिपट कर
देर रात गए.।अकेले
कि उस की औरत को छीन लिया है
उस के मालदार भाई ने...

बूढ़ा किसल्ली
फोड़ता है अपना माथा
इसी नीम के तने से
कि सच्चा होते हुए भी
हार गया है वह मुक़द्दमा
महाजन की बही के ख़िलाफ़...

पांच सेर अनाज के लालच में
शहर जाने से रोक देता है
कलुआ के बीमार बेटे को
कपटी ओझा
और झाड़-फूंक करता है यहीं
इसी नीम की छाया में
इसी चौपाल पर...

इसी बुज़ुर्ग नीम के तले
गाए जाते हैं फाग...फागुन में
और होली के दिन
लगाये जाते हैं गुलाल के टीके
हंस-हंस कर...
सगाइयाँ होती हैं
बंटते हैं बताशे
गाए जाते हैं गीत...

होती हैं
एक दूसरे की बातें
जन्म लेते हैं विवाद
बनती हैं
झगड़े और मारपीट जी
योजनाएँ...

गांव का पुजारी
रोज़ इस नीम से
दातुन तोड़ता है
सवेरे
और फिर सारा गाँव
व्यस्त हो जाता है
एक खुजैले कुत्ते को छोड़ कर
जो थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद
आता है
और उदास, एकाकी नीम के
खुरदुरे तने से
अपनी देह रगड़ कर
लौट जाता है।