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जबले आँख खुली ना, कइसे समझी भोर भइल बा / सूर्यदेव पाठक 'पराग'

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जब ले आँख खुली ना, कइसे समझी भोर भइल बा
घर में बठइल इकसे जानी दुनिया कहाँ गइल बा

वरदानो के लाभ मिले, पावे के चाह जगे जब
अन्हरा का जानी, राहे में थइली भरल धइल बा

ऊपर के कपड़ा धप्-धप् से, कइसे केहू जानी
दिल में कतना बइठल केकरा भीतर आज मइल बा

अपना खातिर के ना सोचे, जतना लोग जगत् के
अनका हित में जान गँवावे, कतना लोग भइल बा

नीक-जबून बतावे वाला भीतर छिप पइसल बा
सबके दिल के समझेला जग, जइसन आपन दिल बा