भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़ुरूरत तलबगार पर चढ़ गई / मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:35, 25 मार्च 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़ुरूरत तलबगार पर चढ़ गई
नदी आज कुहसार पर चढ़ गई

उठाया जहाँ ख़ुदशनासी ने सर
वहीं धार तल्वार पर चढ़ गई

तअक़्क़ुब किया लाख परछाई ने
मगर धूप मीनार पर चढ़ गई

बिछी रह गई सब्ज़ा-सब्ज़ा उमीद
वो हँसते हुए कार पर चढ़ गई

छतों से सितारे चमकने लगे
हरी घास दीवार पर चढ़ गई

अलामात ने जाल फैला दिया
’मुज़फ़्फ़र’ ग़ज़ल तार पर चढ़ गई