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जान-ए-बे-ताब अजब तेरे ठिकाने निकले / ज़फ़र अज्मी

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जान-ए-बे-ताब अजब तेरे ठिकाने निकले
बारिश-ए-संग में सब आइना-ख़ाने निकले

सब बड़े ज़ोम से आए थे नए सूरत-गर
सब के दामन से वही ख़्वाब पुराने निकले

रात हर वादा-ओ-पैमान अमर लगता था
सुब्ह के साथ कई उज़्र बहाने निकले

ऐ किसी आते हुए ज़िंदा ज़माने के ख़याल
हम तेरे रास्ते में पलकें बिछाने निकले

कास-ए-दर्द लिए कब से खड़े सोचते हैं
दस्त-ए-इम्काने से क्या चीज़ न जाने निकले

हर्फ़-ए-इनकार सर-ए-बज़्म कहा मैं ने ‘जफ़र’
लाख अँदेशे मेरे दिल को डराने निकले