भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जिसने मुँह मे ज़बान रक्खी है / चाँद शुक्ला हादियाबादी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:58, 7 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चाँद हादियाबादी }} Category:गज़ल <poem> ज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जिसने मुँह में ज़बान रक्खी है
उसने अपनी ही ठान रक्खी है
यह तो जाएगी जाते-जाते ही
क्यों हथेली पे जान रक्खी है
साथ जिसने दिया है हर पल-छिन
उसने ही आन-बान रक्खी है
रोज़ मरतें हैं रोज़ जीते हैं
रौनके दो जहान रक्खी है
ऐ फ़लक तू खुला है ख़ाली है
चाँद तारों ने शान रक्खी है