भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जुर्म पर उनके हमें सज़ा हो गई / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:09, 22 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास' |अन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जुर्म पर उनके हमें सज़ा हो गई
दोस्ती किस क़दर बेवफ़ा हो गई।

रोते-रोते कहा रख के क़ासिद नर ख़त
फूल वाली गली लापता हो गई।

होश आया ज़ईफ़ी की दहलीज़ पर
जिस्म से जब जवानी हवा हो गई।

दी तसल्ली कलेजे को ये सोच कर
हमसे किस्मत हमारी खफ़ा हो गई।

हम न शायर बुढ़ापे तलक बन सके
वो जवानी में ही शायरा हो गई।

पल वो 'विश्वास' पहचान पाए न हम
किस घड़ी इश्क़ की इब्तिदा हो गई।