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ढले जब शाम को सूरज नदी तट पर मिला करना / रंजना वर्मा

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ढले जब शाम को सूरज नदी तट पर मिला करना।
कुमुदिनी जब खिले सर में सुमन सम तुम खिला करना॥

पुराने वस्त्र जैसा नभ फटे बरसात की ऋतु में
बिजलियों का लिये धागा नयन से तुम सिला करना॥

लिखा तकदीर में जो भी वही पाया ज़माने में
उसी को मानना आशीष मत रब से गिला करना॥

बिना देखे सजन तुम को हमें कल ही नहीं पड़ता
कभी आना बुलाना या मिलन का सिलसिला करना॥

तपे जब हिज्र का सूरज नज़र हो चौंधियाई सी
नयन को मूंद स्वप्नों में विरह को झिलमिला करना॥

हुआ पतझर झरे सब फूल पत्ते डालियाँ तज कर
सुमन का धर्म है हँस शुष्क डाली पर हिला करना॥

हजारों बार होंगे भग्न आशा के महल फिर भी
बढ़ाना हौसला मन की कुटी को ही किला करना॥