भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दीप जलाये मत रखना / चन्द्रेश शेखर

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:45, 24 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रेश शेखर |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब मेरी सुधि में तुम पथ पर
दीप जलाये मत रखना

मैं सागर में खोयी नौका
कब जाने किस छोर लगूँ
और तुम्हारा कुसुमित जीवन
खिलकर फिर मुरझा जायेगा
माना मन से मन के विनिमय
में कुछ मोल नहीं चलता है
फिर तुम सा मुझ जैसे को
पाकर भी क्या कुछ पायेगा
यक्ष-प्रश्न जीवन के जितने
सुलझा पाओ सुलझा देना
पर इन प्रश्नों मे ही जीवन
तुम उलझाए मत रखना

जिसकी कोई भोर न होगी
ऐसी कोई रात नहीं है
कौन घाव ऐसा जीवन का
समय न जिसको भर पाया है
जीवन खुशियों का मेला ही
नहीं अपितु दुख भी सहने है
सबको मनचाहा मिल जाये
यह संभव हो कब पाया है
अपने हिस्से के सारे सुख
जितने चुन पाओ चुन लेना
लेकिन मन में गिरह लगाकर
दर्द पराये मत रखना