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दुर्दशा / रामकृपाल गुप्ता

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ज्योति के क्यों दीप बुझते जा रहे हैं
आ रहे हैं घोर झंझा के झकारे
आज तम का ज्योति परअधिकारक्यों कर
जग्मि के मृदु शक्ति का परिहारक्योंकर
मत्त दीपक की शिखा भूचाल क्यों कर
परूष क्यों कर पथ प्रलय का हास क्यों कर
मृत्यु की होगी विजय अमरत्व पर क्या
क्या बजेंगे विश्व में निष्ठुर नगारे?
आ रहे हैं घोर झंझा के झकारे
शांति के मिस यह तुम्हारा प्रलय सर्जन
विश्व के कल्याण का है विवश नर्तन
सत्य का देखो तनिक भय मय प्रकंपन
निगल जाने को तिमिर का घोर गर्जन
आज प्रक्षय से भरा क्यों मार्ग जग का
शांति होती जा रही हमसे किनारे
आ रहे हैं घोर झंझा के झकारे
दुःख सुख नूतन नहीं प्रत्युत चिरंतन।
पर तुम्हारा ही सुखी से प्यार नूतन।
निर्बलों से प्यार करना सीखना है
और हमको सीखना है आत्मदर्शन
शक्ति जब उन्मुख सर्जन की ओर होगी
पड़ न पायेगी कगारों में दरारें।
ज्योति के क्यों दीप बुझते जा रहे हैं
आ रहे हैं घोर झंझा के झकारे।