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देश / जावेद आलम ख़ान

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महज ज़मीन का टुकड़ा नहीं है देश
दीवार पर कीलों से ठुकी कोई तस्वीर भी नहीं
जिसे देखकर की जाए सियासी तकरीर
देश नहीं होता कागज पर लिखी तहरीर
कि पढ़कर वतनपरस्ती के मुबाहिसे किए जाएँ
कोई अफीम की गोली नहीं
कि खाएँ और उन्माद में जिए जाएँ

देश खेतों में जुटे किसान की पीड़ा में बसता है
देश दिल्ली की संसद में नहीं
धूल में लिपटे बच्चों की क्रीड़ा में बसता है
हल, गैती, कुदाल और हसिये से बनता है
देश दौड़ता है अपने कारखानों की गति में
मुस्कुराता है अपनी प्रकृति में

देश है तो हम है इस दौर का
सबसे प्रचलित अर्धसत्य है
हम सब अधूरे है इस वाक्य के साथ
क्योंकि देश अधूरा है मानवता के बिना
पूर्णता के लिए ज़रूरी है इस वाक्य का मुकममल होना
कि देश है तो हम है हम है तो देश है

देश बनता है आदमीयों से
और सांस लेता है आदमीयत में