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धन्यवाद / महेन्द्र भटनागर

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दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान ;

कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !

जग की डाल-डाल पर छाया
था मधु-ऋतु का वैभव,
वसुधा के कन-कन ने खेली
थी जब होली अभिनव,
मेरे उर के मूक गगन को
गुंजित कर जो तुमने गाया मधु-गान ;

कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !

पूनम की शीतल किरनों में
वन-प्रांतर डूब गये,
जब जन-जन मन में सपनों के
जलते थे दीप नये,
युग-युग के अंधकार में तुम
मेरे लाये जो जगमग स्वर्ण-विहान ;

कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !

जब प्रणयोन्माद लिए बजती
मुरली मनुहारों की,
घर-घर से प्रतिध्वनियाँ आतीं
गीतों-झनकारों की,
दो क्षण को ही जो तुमने आ
बसा दिया मेरा अंतर-घर वीरान ;

कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !

आ जाती जीवन-प्यार लिए
जब संध्या की बेला,
हर चैराहे पर लग जाता
अभिसारों का मेला,
दुनिया के लांछन से सोया
जगा दिया खंडित फिर मेरा अभिमान ;

कृपा तुम्हारी धन्यवाद !