भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धूप में अब छाँव मुमकिन, जेठ में बरसात मुमकिन / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
Kavita Kosh से
Purshottam abbi "azer" (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:33, 16 सितम्बर 2011 का अवतरण
धूप में अब छाँव मुमकिन, जेठ में बरसात मुमकिन
रात है गर दिन में शामिल, दिन में होगी रात मुमकिन
सावधानी का कवच पहनो, अगर घर से चलो तुम
प्यार मुमकिन हो न हो पर, दोस्तों से घात मुमकिन
माँए हैं ममता से गाफिल, बाप अपनी चाहतों से
कल जो मुमकिन ही नहीं थी, आज है वो बात मुमकिन
सोच में रह जाए केवल, याद घर का साजो-सामाँ
भूल जाएँ खुद को हम-तुम, ऐसे भी हालात मुमकिन
वक्त का पहिया चला जाता है,’आज़र’रौंदकर सब
जीतते जो आ रहे हैं, कल उन्हे भी मात मुमकिन