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नाव / प्रेमलता वर्मा

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छनछनाते मन की कलौंच
पोंछ लेना हर बार
नाव के घाट लगने तक।

प्रकाश कंपित यह नाव
जब डूब जाए तो बना लेना
कोई काग़ज़ की नाव ही सही-
लाल, नीली, हरी जैसी भी लगे
बतौर अपनी अस्मिता के।

एक और थी बचपन से जवानी तक पसरी
मौत को आगे-पीछे ठेलती
उम्र तक पहुँची,

वह थी रूप की क्षणभंगुरता
को अमर बनने वाली
कविता के अक्षरों से बनी नाव
जो कठिन लहरों की प्राचीरों से टकराकर भी
लगेगी सही घाट पर ही।

यूटोपिक आस्था के
चकमक उजाले में
समय और दिशा होते हैं एक
तथा सपने ही जीवन संचालन का
ले आते हैं एकमात्र बहु संदेश।

कविता के अक्षरों की नाव में
ख़ुदी है यह यूटोपिक आस्था।
मगर चलती है ख़ूब। बख़ूबी।