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निस्बत ही किसी से है न रखते हैं हवाले / नूर जहाँ 'सरवत'

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निस्बत ही किसी से है न रखते हैं हवाले
हाँ हम ने जला डाले हैं रिश्‍तों के क़बाले

बे-रूह हैं अल्फाज़ कहें भी तो कहें क्या
है कौन जो मानी के समंदर को खंगाले

जिस सम्त भी जाऊँ मैं बिखर जाने का डर है
इस ख़ौफ-ए-मुसलसल से मुझे कौन निकाले

मैं दश्‍त-ए-तमन्ना में बस इक बार गई थी
उस वक़्त से रिसते हैं मेरे पाँव के छाले

बे-चेहरा सही फिर भी हकीक़त है हकीक़त
सिक्का तो नहीं है जो कोई इस को उछाले

‘सरवत’ को अँधेरों से डराएगा कोई क्या
वो साथ लिए आई है क़दमों के उजाले