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पगडण्डी हूँ / पद्मजा शर्मा

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पगडण्डी हूँ, घर जाऊँगी
जोड़ो न राजमार्गो, सड़को से मुझे
मेरी पहुँच कम है, ज्यादा चल नहीं पाऊँगी
छोटी हूँ, शहरी बोझ ढोते-ढोते थक जाऊँगी
पगडण्डी हूँ, घर जाऊँगी

चलेंगे भारी वाहन मेरी छाती पर
उड़ाएगें मिट्टी-धूल-कंकड़, मैं घुट जाऊँगी
किसी को कुछ कह भी नहीं पाऊँगी
चोरी करेंगे कोई और बदनाम मैं हो जाऊँगी
निर्दोषों के होंगे अपहरण, निर्निमेष देखती रह जाऊँगी
पगडण्डी हूँ, घर जाऊँगी

अँधेरों से तो घबराती ही थी
फिर रोशनियों से भी डर जाऊँगी
रास्ते चौड़े करने के नाम पर हरियाली को काटा जाएगा
मैं जीते जी मर जाऊँगी
पगडण्डी हूँ, घर जाऊँगी

मैं गाँव से निकलकर
जोहड़े-खेत सम्भाल आऊँगी
मुझे सड़को से मत जोड़ो
शहरों-बाजारों तक अगर गई
तो सच कहती हूँ, मर जाऊँगी
पगडण्डी हूँ, घर जाऊँगी।