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पटकथा 1388 / नवारुण भट्टाचार्य

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पटकथा 1388<ref>बंगला वर्ष---- अनुवादक</ref>

एक कोठरी में लाल टेन के काँपते उजाले में
दिखती है एक लड़की अपने ही गले से कपड़ा बाँधकर अकेले झूलती हुई
घर के कोनों में सिर्फ़ चूहों की खच- खच आवाज़ है
कीड़े-खाये बासी चावल चुराकर वे छिप जाते है‍ बिल में
लड़की के जीवन का जो सत्त्व है वह भी मरता जाता है क्रमश:

क्या तुम्हें शर्म आती है अपने अस्तित्व की कंद्रा में?
वेश्याएँ ढोते इस शहर-बंदरगाह में क्या तुम डूबी जाती हो?

ऐसे क्षण में इस झूलते हुए दृश्य के क़रीब
अचानक अगर रेडियो पर बज उठे मोहक राष्ट्रीय धुन
तो मानना होगा कि दोनों पाँव हवा में टिकाअकर
एक लड़की राष्ट्र को दे रही है सम्मान
जैसे कि नंगे पैर स्कूली बच्चों से कहा जाता है
कि दुर्लभ पुण्य देता है गंदे नाले के पानी में स्नान
इस बीच झड़े बालों वाले कुछ बूढ़े चूहों का दल
फिइले हुए पेट की बिल्लियों से करता है संभोग
वासना का खेल
इसी तरह कटते हैं दिन-रात काल-अकाल
मृत युवती झूलती है जम जाती है लालटेन पर कालिख
इससे तो लाख बेहतर था देशद्रोही कहलाकर
जल जाना

क्या तुम ग़ुस्से में हो अपने अस्तित्व की कंदरा में
क्या तुम चाहती हो शहर,गाँव, बंदरगाह में युद्ध?

शब्दार्थ
<references/>