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पत्ते नीम के / उपेन्द्र कुमार

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हवा चली
ठनके पत्ते
हरे नहीं
बादामी
नीम के
झरने से पहले

बगल में उगे पेड़ ने
झुक कर मेरी तरफ
बढ़ाए थे टहनियों के हाथ
हरे पत्तों की
सँवलाई छाँह के नीचे
निपटाए थे बहुत से काम
बढ़ने लगी थी
परस्परता

हरे पत्ते गर्मियों में
झुलाते थे पंखा
और सर्दियों में
गुनगुनी धूप
छनकर आती थी मुझ तक

झर-झर शोर मचाती
परिहास में डोलती
टहनियाँ
बढ़-बढ़ कर घेरती थी
फूलों से
निम्बोरियों से
फूटती सुगन्ध ने
कितनी ही बार बुलाया
और हर बार वही सुगन्ध
प्रमुदित करती थी
कविताओं को

लिखा है भविष्य
इन हरे पत्तों पर
जो पतझर में
पीले से बादामी होते
जमीन पर
गिरते ही रहते हैं

अगले पतझर में भी
पीले पत्तो
तुम आना
मैं तुम्हें दूँगा समय को