भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता / बशीर बद्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:36, 18 जुलाई 2023 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता

हज़ारों शेर मेरे सो गए काग़ज़ की क़ब्रों में
अजब माँ हूँ कोई बच्चा मिरा ज़िन्दा नहीं रहता

तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नए अन्दाज़ वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हम सा नहीं रहता

मोहब्बत एक ख़ुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इनसान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहताख

कोई बादल हरे मौसम का फिर ऐलान करता है
ख़िज़ाँ के बाग़ में जब एक भी पत्ता नहीं रहता