भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पान का गीत / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:34, 1 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छप्पर-छानी सजी हुई है
परवल पान रतालू की बारी में भीगी
वर्षा ऋतु की गमक अभी तक बसी हुई है

चैत गया बैसाख आ गया
महुआ चूनेलगा
लपट लू की झुलसाने लगी
तवे-सी तपती धरती लेकिन फिर भी
पनवारी की बारी में
हरियाली की ऎसी रंगत है ऎसी धज है...

जैसे कोई नया-नवेला
बप्पा से आँखें बरका कर
पान दबा कर चोरी-चोरी
पनवारी के दर्पन में
अपनी मुखशोभा देख रहा हो
और भीगती हुई रेख का दर्प
दीप्त कर दे दर्पन को!

हरियाली के भीतर-भीतर उठती गिरती
एक लहर उससे भी गहरी हरियाली की!