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पानी / रजत कृष्ण

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पानी से
हमारी पहली पहचान
तब होती है
जब काग़ज़ की कश्ती में
पार करते हैं हम
बचपन की नदी
और सावन कई दिनों तक
हमें भिगोए रहता है ।

देह में चढ़ता है पानी
धीरे-धीरे
और पुख़्ता होते जाते हैं
हमारे क़दम।

पानी का रिश्ता
हमारी आँखों से
सबसे सघन होता है
वह लबालब होता है जब तक
रंगों की परख
सम्भव होती है तभी तक

दुनिया की अन्धेरी गलियों में
जगमागाती बिजली
पानी के उत्सर्ग की गाथा है ।

पानी के उत्सर्ग पर ही
टिका होता है
हमारे तुम्हारे घरों का स्थापत्य ।

घर में
पहला क़दम रखती है
नव वधु जब
द्वार पर दादी नानी
पानी दरपती हैं ।
पानी से ही वे करती हैं स्वागत
खलिहान से आए नवान्न का
रणभूमि से लौटे जवान का ।

पानी दौड़ता है
जीवन की सूखी नदियों में
और पथराया मन भी
रुनझुन बज उठता है ।

पानी टहलता है
दबी सोई जड़ों की बस्ती में
और लौट आती है
निर्वासन झेलती हरियाली ।

जिन्दगी की बड़ी धूप में
सफ़र करता हुआ
मुसाफ़िर कोई
गश खाकर गिर पड़ता है
तो पानी उसे दवा-सा मिलता है ।

वह पनिहारिन की आँख में
सबसे चौड़े खुले सीने
और अपनापा भरे काँधे-सा
चमकता है
जिसका दुख बाँटने वाला
घर में कोई नहीं होता है ।

अनुपस्थिति में भी
उपस्थित रहने का हुनर
दुनिया को पानी ने सिखाया
पानी ने सिखाया पुनर्नवा होना
प्रकृति के
पोर-पोर को ।