भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पार्वती-मंगल / तुलसीदास / पृष्ठ 14

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:00, 21 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=प…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

।।श्रीहरि।।

( पार्वती-मंगल पृष्ठ 14)
 
सुनि मैना भइ सुमन सखी देखन चली।
जहँ तहँ चरचा चलइ हाट चौहट गली।109।

श्रीपति सुरपति बिबुध बात सब सुनि सुनि।
 हँसहिं कमल कर जोरि मोरि मुख पुनि पुनि।110।

लखि लौकिक गति संभु जानि बड़ सोहर।
भए सुंदर सत कोटि मनोज मनोहर।111।

नील निचोल छाल भइ फनि मनि भूषन ।
रोम रोम पर उदित रूपमय पूषन।112।

गए भए मंगल बेष मदन मन मोहन ।
सुनत चले हियँ हरषि नारि नर जोहन।113।

संभु सरद राकेस नखत गन सुर गन।
जनु चकोर चहुँ ओर बिराजहिं पुर जन।114।

गिरबर पठए बोलि लगन बेरा भई।
मंगल अरघ पाँवड़े देत चले लई।115।

होहिं सुमंगल सगुन सुमन बरषहिं सुर।
 गहगहे गान निसान मोद मंगल पुर।116।

 पहिलिहिं पवरि सुसामध भा सुख दायक।
इति बिधि उत हिमवान सरिस सब लायक।117।

मनि चामीकर चारू थार सजि आरति रति ।
सिहाहिं लखि रूप गान सुनि भारति।118।

 भरी भाग अनुराग पुलकि तन मुद मनं।
 मदन मत्त गजगवनि चलीं बर परिछन।119।

बर बिलोकि बिधु गौर सुअंग उजागर।
 करति आरती सासु मगन सुख सागर।120।

 सुख सिंधु मगन उतारि आरति करि निछावर निरखि कै।
मगु अरघ बसन प्रसून भरि लेइ चलीं मंडप हरषि कै।।
 हिमवान् दीन्हें उचित आसन सकल सुर सनमानि कै।
तेहि समय साज समाज सब राखे सुमंडप आनि कै।14।

(इति पार्वती-मंगल पृष्ठ 14)