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प्रिय यह प्राणों की मालिन / रामगोपाल 'रुद्र'

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प्रिय यह प्राणों की मालिन अनुक्षण उन्‍मन रहती है!

मधुऋतु बीती, कुसुमों में रंगत ही आते-आते,
जब रंग चढ़ा, तब देखा, सबको लू में अकुलाते;
करुणा की सूखी आँखें भर-भर आईं, ढर आईं;
फिर ज्वार जगानेवाली किरणें भी क्या मुसकाईं!
अब इस पतझर में देखूँ, यह क्या-क्या दुख सहती है!

रह-रह मन्‍दिर में जाती, चुप्पी-सी रह जाती है;
फिर बाहर दौड़ी आती, हँसती है, पछताती है;
यह थाती, जो बंधक है, किस रोज़ छुड़ा जाओगे?
इसको इसका लौटाने, बोलो, कब तक आओगे?
यह तुम पर है, तुम देखो, यह दुनिया क्या कहती है!