भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फ़ज़ाएं धुंध से सरगोशियों की और अट जाएं / शहरयार

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:37, 23 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहरयार |अनुवादक= |संग्रह=सैरे-जहा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फ़ज़ाएं धुंध से सरगोशियों की और अट जाएं
बदन की ये चटानें मुमकिना हद तके सिमट जाएं

समंदर-तह तलक जाना बहुत आसान हो जाये
अगर गौहर भरी ये सीपियाँ इक पल को हट जाएं

बता सकता है कोई वो मुसाफ़िर कौन होते हैं
जो इक रस्ते से आएं और दो सिम्तों में बंट जाएं

न जाने आने वाला वक़्त क्यों दुश्मन सा लगता है
हवाएं आ के फिर औराक़ माज़ी के पलट जाएं

मुनासिब वक़्त है जिन्से-सुख़न को बेच देने का
ख़बर किसको है इसके भाव कब और कितने घट जाएं।