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फ़िलिस्तीनी कविताओं का अनुवाद करते हुए/ अनातोली परपरा

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फ़िलिस्तीनी कविताओं का अनुवाद करते हुए
मुझे कठिन लगने लगती है
बेरूत के दृश्यों की पुनर्रचना
उजाड़
महामारी ग्रस्त
लाशों पर उड़ते हुए कौए...

जब भी लिखने बैठता हूँ मैं
मेरी डायरी पर आहिस्ता-आहिस्ता
उतरने लगता है एक बच्चा
जला हुआ बच्चा, रोते-रोते थका हुआ
जिसका बचपन
तहस-नहस है मेरे बचपन की तरह

रुको, मेरे बच्चे !
माँ की तरफ़ मत भागो
नीली मौत ने उसकी अमर
और निर्मल आँखों को
आकाश में तानने को बाध्य किया है
सदा के लिए

रुको, मेरे मुन्ने !
सड़क कीतरफ़मत जाओ
वहाँ तुम पाओगे कठोर और भारी बूट
वे पहले ही बहुतों को रौंद चुके हैं
और तुम उनके लिए
धूल से ज़्यादा कुछ नहीं

तुरन्त वापिस लौटो
काली आँखों वाले, मेरे बेटे !
लौटो, तुरन्त वापिस
बम उड़ रहे हैं
फट रहे हैं बम... सँभलो,
बचो... लेट जाओ

यदि जीवन में नहीं
तो अपनी कविताओं में
मैं तुम्हें बचाऊँगा मेरे बच्चे
जैसे कविताओं ने
अनेक बार बचाया है मेरा जीवन

जब भी मैं अनुवाद करता हूँ
फ़िलिस्तीनी कविताओं का
मेरा दिल, मेरा दिमाग़
थकता नहीं
चूँकि मुझे लगता है कि
राख और धूल से फिर एक बार
मैं रच रहा हूँ
अपने बचपन के वही भयानक दृश्य

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय