भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ब-ज़ाहिर जो नज़र आते हो तुम मसरूर ऐसा कैसे करते हो / सिराज अजमली

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:28, 22 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सिराज अजमली }} {{KKCatGhazal}} <poem> ब-ज़ाहिर जो...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ब-ज़ाहिर जो नज़र आते हो तुम मसरूर ऐसा कैसे करते हो
बताना तो सही वीरानी-ए-दिल का नज़ारा कैसे करते हो

तुम्हारी इक अदा तो वाक़ई तारीफ़ के क़ाबिल है जान-ए-मन
मैं शश्दर हूँ कि उस को प्यार इतना बे-तहाशा कैसे करते हो

सुना है लोग दरिया बंद कर लेते हैं कूज़े में हुनर है ये
मगर तुम मुंसिफ़ी से ये कहो कतरे का दजला कैसे करते हो

हमारी बात पर वो कान धरता ही नहीं है टाल जाता है
तुम्हें क्या नहीं हासिल कहो अर्ज़-ए-तमन्ना कैसे करते ो

तअज्जुब है तअल्लुक याद रखना और फिर आराम से सोना
अगर उस को भुला पाए नहीं अब तक सवेरा कैसे करते हो

तुम्हारी आह का ये कौन सा अंदाज़ है वाज़ेह नहीं होता
मुअम्मा ये नहीं खुलता की तुम दरिया को सहरा कैसे करते हो