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बड़ी मान लीला / सूरदास

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राधेहिं स्याम देखी आइ ।

महा मान दृढ़ाइ बैठी, चितै काँपैं जाइ ॥

रिसहिं रिस भई मगन सुंदरि, स्याम अति अकुलात ।

चकित ह्वै जकि रहे ठाढ़े, कहि न आवै बात ॥

देखि व्याकुल नंद-नंदन, रूखी करति विचार ।

सूर दोउ मिलैं, जैसैं, करौ सोइ उपचार ॥1॥



यह ऋतु रूसिबे की नाहीं ।

बरषत मेघ मेदिनी कैं हित, प्रीतम हरषि मिलाहीं ॥

जेती बेलि ग्रीष्म ऋतु डाहीं, ते तरवर लपटाहीं ।

जे जल बिनु सरिता ते पूरन, मिलन समुद्रहिं जाही ॥

जोबन धन है दिवस चारि कौ, ज्यौं बदरी की छाहीं ।

मैं, दंपति-रस-रीति कही है, समुझि चतुर मन माहीं ॥

यह चित धरि री सखी राधिका, दै दूती कौ बाहीं ।

सूरदास उठि चली री प्यारी, मेरैं सँग पिय पाहीं ॥2॥



तोहि किन रूठन सिखई प्यारी ।

नवल बैस नव नागरि स्यामा, वे नागर गिरिधारी ॥

सिगरी रैनि मनावति बीती, हा हा करि हौं हारी ।

एते पर हठ छाँड़ति नाहीं, तू वृषभानु दुलारी ॥

सरद-समय-ससि-दरस समरसर, लागै उन तन भारी ।

मेटहु त्रास दिखाइ बदन-बिधु, सूर स्याम हितकारी ॥3॥


हर-मुख राधा-राधा बानी ।

धरिनी परे अचेत नहीं सुधि, सखी देखि अकुलानी ॥

बासर गयौ, रैन इक बीती, बिनु भोहन बिनु पानी ।

बाहँ पकरि तब सखिनि जगायौ, धनि-धनि सारँगपानी ॥

ह्याँ तुम बिबस भए हौ ऐसे, ह्वाँ तौ वे बिबसानी ।

सूर बने दोउ नारि पुरुष तुम, दुहुँ की अकथ कहानौ ॥4॥


सुनि री सयानी तिय रूसिबे कौ नेम लियौ, पावस दिननि कोऊ ऐसौ है करत री ।

दिसि दिसि घटा उठी मिली री पिया सौं रूठी, निडर हियौ है तेरौं नैंकु न सरत री ॥

चलिए री मेरी प्यारी, मौकौं मान देन हारी, प्रानहुँ तैं प्यारे पति धीर न धरत री ।

सूरदास प्रभु तोहिं दियौ चाहै हित-बित, हँसि क्यौं न मिलै तेरौ नेम है टरत री ॥5॥


बेरस कीजै नाहिं भामिनी, मैं रिस की बात ।

हौं पठई तोहिं लेन साँवरैं, तोहिं बिनु कछु न सुहात ॥

हा हा करि तेरे पाइँ परति हौं, छिनु छिनु निसि घटि जात ।

सूर स्याम तेरौ मग जोवत, अति आतुर अकुलात ॥6॥


माधौ, तहाँ बुलाई राधे, जमुना निकट सुसीतल छहियाँ ।

आछी नीकी कुसुँभी सारी गोरैं तन, चलि हरि पिय पहियाँ ॥

दूती एक गई मोहिनि पै, जाइ कह्यौ यह प्यारी कहियाँ ।

सूरदास सुनि चतुर राधिका,स्याम रैनि बृंदाबन महियाँ ॥7॥


झूँमक सारी तन गोरैं हो ।

जगमग रह्यौ जराइ कौ टीकौ, छबि की उठति झकोरैं हो ॥

रत्न जटित के सुभग तर्‌यौना, मनहुँ जाति रबि भोरैं हो ।

दुलरी खंठ निरखि पिय इक टक, दृग भए रहैं चकोरैं हो ।

सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन खौं, रीझि=रीझि तृन तोरैं हो ॥8॥



राधिका बस्य करि स्याम पाए ।

बिरह गयो दूरि, जिय हरष हरि के भयौ, सहस मुख निगम जिहिं नेति गायौ ॥

मान तजि मानिनी मैन कौ बल हर्‌यौ, करत तनु कंत जो त्रास भारी ।

कोक बिद्या निपुन, स्याम स्यामा बिपुल. कुंज-गृह द्वार ठाढ़े मुरारी ॥

भक्त-हित-हेत अवतार लीला करत, रहत प्रभु तहाँ निजु ध्यान जाकैं ।

प्रगट प्रभु सूर ब्रजनारि कैं हित बँधे, तेत मन-काम-फल संग ताकैं ॥9॥