भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बारमॅ सर्ग / उर्ध्वरेता / सुमन सूरो

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:08, 12 मई 2016 का अवतरण (Rahul Shivay ने बारमॅ सर्ग / उर्ध्वरेता / अमरेन्द्र पृष्ठ बारमॅ सर्ग / उर्ध्वरेता / सुमन सूरो पर स्थाना...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मधुमती

उबडुब सुख में मॅन बहिनपा;
निर्धन-धनी समाजॅ के।
सश के गीत पसरलै सगरो;
भरत वंश के राजॅ के।
ई भारत के गौरव बहिना;
निर्मल चरित विधानॅ के।
संसारी केॅ शुभ समाद् ई;
रिसि-मुनिवर के ज्ञानॅ के।

जेना मधु के प्यास बढ़ै छै;
मधु के स्वाद चखैला सें।
मन के भूख बढ़ै छै बहिना;
अजगुत कथा सुनैला सें।
युद्ध के उन्माद् थिराबै,
मादकता के छाहीं में।
अक्सर बीर पुरुष लपटै छै;
रूपवती के बाँहीं में।

यहेॅ छगुन्ता छेॅ, कहने जा
अगला चरण कहानी के।
सच्चे महाबली रहलै की;
अट्टट बिना जनानो के?
की कोनों उर्बशी-मेनका;
नै ऐलै कहियो भी पास।
या आगू के भोजन तेजी;
व्रतीं वरलकै खड़ा उपास?

सुचेता

यै दुनियाँ में एक-एक सें,
घटलॅ छै अतरज के बात।
कभी-कभी बेसी विचित्र;
सच बनी झूठ केॅ दै छै मांत।
महापुरुष जखनी आबै छै;
कहियो अपना आनॅ पर।
हाथ मलै छै भुवनमोहिनीं;
घुच्छॅ रूप - गुमानॅ पर।

पानी बनी-बनी टघरै छै,
मादकतम आँखी के प्यास।
स्याह बनै छै चान पूर्णिमा;
पल में पावी राहु-गरास।
नाँघी दै छै खेंड़ बहिनपा;
सभै बीर अभिमानी के।
तोड़ी दै छै लोक पुरानॅ;
बदलै बात कहानी के।

दिन बितलै
ऐलै रात अन्हार
बही गेलै-
मंजर- मकूल के गंध हवा के छाती पर।
महुआ-कटहर-चम्पा, वनबेला उफनैलै।
छुटलै दिगन्त पर फूलॅ के शर
झर - झर - झर
झरलै बसन्त-अनुराग-
रागमय जीवन!

कलशॅ झुकलॅ
नवपात-शाल ओढ़ी रङ्लॅ
अस्थिर पौरुष केॅ वरै
नवोढ़ा चितवन!

उद्दाम प्रकृति।
रग-रग में पौरुष असम्भार।
उपटै ज्वारॅ पर महाज्वार
आलोड़न!

उद्वेलित मन चर-अचर
अजर सेना साजी
फेरु में ऐलै कामदेव
मानॅ जीतै लेॅ
भव-मोचन!

धरती पर कुश,
कुश पर मृगछाला-
शुद्ध वस्त्र;
एकाग्रचित्त
आसन पर अविचल भीष्म-
कड़ा मन पर अंकुश!

छै एक सीध-
ऊँचे छाती
कलशॅ-माथॅ;
थिर आँख
नाक के अगला भागॅ पर;
टुक-टुक।

चंचल सागर बीचें निश्चल मणिमय पहाड़
या चिर निरोत में
दीप-शिखा रं जगमग मुख!

ठमकी गेलॅ छै काल,
चेतना के उछाल अस्थकित,
विरत मुख फणिधर!
या, लहर-तरंग समेटी शान्त सरोवर!

मानॅ-
रेचक-पूरक-कुंभक नियमित प्रयोग
जोगीं पाबी गेलै निर्मल ध्यानस्थ योग!
या, छवो चक्र छेदी काड़लकै अन्धकार;
पहुँची गेलै कुण्डलनी सड़सड़ सहस्रार!

लघुभार देह
झरलै सुगन्ध
आसन छोड़ी कॅे
मन्द-मन्द
खटखट खड़ाम गति
गहन मौन तोड़लकॅ!

बरसै-
आँखी सें सहज शोध
मुखमंडल सें मन के निरोध
बस
एकतान एकात्म-बोध ने
जीवन-रथ मोड़लकै!

उद्दाम प्रकृति-
बनलै सचेत,
आत्मा-सागर;
गंभीर चेत;
शुचि उर्ध्वरेत लेली
सुन्दर
आरोहन के सीढ़ी रं।

रहलै असार परित्यक्त मार
ई कर्मभूमि व्यवहार-सार
निष्काम आत्म-विस्तार
प्रेम में रत
जीवन-रूढ़ी रं!

सिंहासन-सेवा
राष्ट्र-प्रेम
बनलै जिनगी के सहज नेम।
फल के चिन्तन सें
विमुख, कर्म रत
पौरुष के मुखड़ा रं।

पर
पूर्ण सिद्धि में
तनिक रोध रं
विजयी-सुख
वीरत्व-बोध ने
झाँपै कखनू-कखनू सूरज
मेघॅ के टुकड़ा रं!

तखनी-तखनी आबै उबाल
देखै अन्यायी के कुचाल
जखनी-जखनी
दुख पहुँचाबै में रत
पवित्र आत्मा केॅ।
रोदन के भीषण असह रोर;
बेधै भीतर तक ओर-छोर;
धरती-सरंग के पोर-पोर में
खोजै पापात्मा केॅ।

गूँजै तखनी टंकार घोर
मेटी प्रमाद के सृष्टि-ठौर
सुख-शान्ति-प्रेम के बिरवा केॅ
थिर छारम पहुँचावै लेॅ।

नै तेॅ-
जिनगी के सहज डोर
बान्है में रत
दिन-रात भोर
जन-वीणा पर
आत्मन् अछोर के
महागीत गाबै लेॅ।

वाँटै छै उजियाली सुरजें ने जेना समरूप,
हवा मिलै सबके साँसॅ केॅ इच्छा के अनुरूप।
वहिने भीष्में ने समाज केॅ बाँटलकै सहचार,
सबल यम-नियम बनलै नितदिन लोगवेद-व्यवहार।

इच्छापूर्ण मिलै लोगॅ केॅ सबदिन श्रम के भाग,
कोय जरूरत सें बेसी राखै नै लालच-लाग।
आपस में विश्वास-प्रेम के सबके मन में भाव;
सबने वचन निभावै सबसें मानी सत्य-प्रभाव।

निर्भय बिचरै घाट-बाट जंगल सूना में लोग,
सबके रक्षा करै सभैं तेजी हिंसा-अभियोग।
खुद के श्रम पर सुख के अर्जन जीवन के अभिमानः
परधन चोरी-हरण निखट्टू निर्घिन पाप समान।

नर-नारी सम्बंध सृष्टि लेली संयम के सार।
माय-बहिन रं दिगर जनानी के स्वागत सत्कार।।

व्यक्ति-व्यक्ति परिवार समाजॅ के रचना में लीन,
कर्मॅ पर अधिकार सभै के, कम्है में लौलीन।
शस्त्र-शास्त्र-अभ्यास, देश-हित में संचै वीरत्व;
सबलें ऊपर राष्ट्र, भीष्म के मानै सबनै स्वत्व।