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बीत चला यह जीवन सब / किशन सरोज

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बीत चला यह जीवन सब
प्रिय! न दो विश्वास अभिनव
मिल सको तो अब मिलो, अगले जनम की बात छोड़ो

भ्रान्त मन, भीगे नयन
बिखरे सुमन, यह सान्ध्य-बेला
शून्य में होता विलय
यह वन्दना का स्वर अकेला
फूल से यह गन्ध, देखो!
कह चली, `सम्बंध, देखो!
टूटकर जुड़ते नहीं फिर, मोह-भ्रम की बात छोड़ो! '

यह कुहासे का कफ़न
यह जागता-सोता अँधेरा
प्राण-तरू पर स्वप्न के
अभिशप्त विहगों का बसेरा
योँ न देखो प्रिय! इधर तुम,
एक ज्योँ तसवीर गुमसुम,
अनवरत, अन्धी प्रतीक्षा, के नियम की बात छोड़ो!

यह दिये की काँपती लौ,
और यह पागल पतँगा
दूर नभ के वक्ष पर
सहमी हुई आकाश-गंगा
एक-सी सबकी कथा है,
एक ही सबकी व्यथा है,
है सभी असहाय, मेरी या स्वयम् की बात छोड़ो!

हर घड़ी, हर एक पल है,
पीर दामनगीर कोई
शीश उठते ही खनकती
पाँव में जंज़ीर कोई
आज स्वर की शक्ति बन्दी,
साध की अभिव्यक्ति बन्दी,
थक गये मन-प्राण तक, मेरे अहम की बात छोड़ो!