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बेटी / अरुण कुमार निगम

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बेटी बिन सुन्ना हे, घर परिवार
बेटी बनके लछमी, ले अउतार।

घर के किस्मत देथे, इही सँवार
बिन बेटी के कइसे, परब-तिहार।

बेटी के किलकारी, काटय पाप
मंतर जइसे गुरतुर, मंगल जाप।

तुलसी के बिरवा कस, बेटी आय
जेखर आँगन खेले, वो हरसाय।

सुनो गुनो का कहिथें, सबो सियान
महादान कहिलाथे, कन्या-दान।

अरे कसाई झन कर, अतियाचार
बेटी के पूजा कर, जनम सुधार।