भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेत‍आल्लुक़ी / अख़्तर-उल-ईमान

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:27, 27 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अख़्तर-उल-ईमान }} {{KKCatNazm}} <poem> शाम होती है सहर होती है …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शाम होती है सहर होती है ये वक़्त-ए-रवाँ<ref>गुज़रता हुआ समय</ref>
जो कभी मेरे सर पे संग-गराँ<ref>भारी पत्थर</ref> बन के गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला<ref>हिमालय</ref> बन कर
जो कभी उक्दा<ref>समस्या, दिक़्कत</ref> बना ऐसा कि हल ही न हुआ
अश्क बन कर मेरी आँखों से कभी टपका है
जो कभी ख़ून-ए-जिगर बन के मिज़श्गाँ<ref>आँख की बरौनी</ref> पर आया
आज बेवास्ता<ref>बिना किसी संबंध के</ref> यूँ गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कश्मकश-ए-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं


उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

शब्दार्थ
<references/>