भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भटक रही है ‘अता’ ख़ल्क़-ए-बे-अमाँ फिर से / अताउल हक़ क़ासमी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:11, 5 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अताउल हक़ क़ासमी }} {{KKCatGhazal}} <poem> भटक रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भटक रही है ‘अता’ ख़ल्क़-ए-बे-अमाँ फिर से
सरों से खींच लिए किस ने साएबान फिर से

दिलों से ख़ौफ़ निकलता नहीं अज़ाबों का
ज़मीं ने ओढ़ लिए सर पर आसमाँ फिर से

मैं तेरी याद से निकला तो अपनी याद आई
उभर रहे हैं मिटे शहर के निशाँ फिर से

तिरी ज़बाँ पे वही हर्फ़-ए-अंजुमन-आरा
मिरी ज़बाँ पे वही हर्फ़-ए-राएगाँ फिर से

अभी हिजाब सा हाइल है दरमियाँ में ‘अता’
अभी तो होंगे लब ओ हर्फ़ राज़-दाँ फिर से