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भीतर ही / चंद्र रेखा ढडवाल

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भीतर ही
कुछ टूटा भी
तो भीतर ही
लहुलुहान अगर हुई भी तो भीतर ही
घर की खिड़कियों
दरवाज़ों के
रहे सब काँच
साबुत ही
फिर कैसा
मान-मनोव्वल
दुख भी क्योंकर