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महाकाल का घेरा / अमरेन्द्र

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साधो सुर का देश, बेसुरा सारा जग लगता है
सारंगी का सार खो गया, वंशी हो गई लाठी
गाँव के बीचों-बीच खड़ा बरगद लगता है काठी
उपनिषदों पर अर्थशास्त्रा का अर्थ कौन लिखता है !

क्यों अशोक का धम्म अस्त्रा से काट रहे हो, निर्दय
राजसिंहासन नीति-न्याय से बड़ा हुआ क्यों जाता
साध रहा है तीर क्रौंच पर अब तो यहाँ विधाता
पुरखों का वह शील-शान अब कहाँ रह गया अक्षय ।

शहरों की दीवारंे अब गाँवों की गली-गली में
फेंक रहा है कौन तंत्रा यह मारण का भारत पर
बोधिवृक्ष यह दिखा नहीं था कभी भी ऐसा जर्जर
वास बस गया है चिरैंध का फूलों और कली में ।

इसके पहले कि घर-घर में प्रेतों का हो डेरा
साधो सुर का देश; हटे यह महाकाल का घेरा !