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मिरे ख़याल से आगे तिरा निशाना पड़ा / नामी अंसारी

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मिरे ख़याल से आगे तिरा निशाना पड़ा
समंद-ए-शौक़ पे इक और ताज़ियाना पड़ा

अभी तो इश्क़ ओ नज़र के हज़ार पहलू थे
गले हमारे कहाँ से ग़म-ए-ज़माना पड़ा

पराए नूर से मैं कस्ब-ए-फ़ैज़ क्या करता
असर पड़ा है कभी कुछ तो ग़ाएबाना पड़ा

मुझे भी क़र्ज़ चुकाना था उस का अब के बरस
ग़लत नहीं जो मिरा दश्त में ठिकाना पड़ा

किसी के हिस्से में आई ख़िरद की सफ़्फ़ाकी
किसी के हाथ ग़म-ए-इश्क़ का ख़ज़ाना पड़ार

रहा न कोई यहाँ सर-ब-सर तही-दामन
सभी के ज़र्फ़ में मक़्दूर फिर ज़माना पड़ा

हज़ार आँख दिखाते रहे अदू ‘नामी’
ग़ज़ल ग़ज़ल ही रही फ़र्क इक ज़रा न पड़ा