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मूल और ब्याज / भावना मिश्र

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सुन्दर लगती है रसोई में भात पकाती औरत
आँगन में कपड़े धोती
ओसारे पर झाड़ू देती
बच्चों की बहती नाक आँचल से पोछती
ऐसी औरत की छवि पर हम मुग्ध होते हैं बार-बार

रोटियों की गोलाई साधती
जो स्वयं घूमती है किसी अदृश्य अक्ष पर
पसीने की बूँदें फैला देती हैं जब उसके माथे का सिन्दूर
तो वह तस्वीर बनकर छपती है कितनी ही घरेलू पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर

उसके आँचल में बसा हल्दी का रंग
उसकी उँगलियों के पोरों से रिसती मसालों की गन्ध
ये उतने ही ज़रूरी शृंगार हैं जैसे टिकुली, बिछिया और नाक की लौंग

और अन्तिम लेकिन औरत होने को अनिवार्य,
एक जोड़ी झुकी हुई आँखें
भारतीयता की छवि से लथपथ यह औरत
सपने भी देखती है तो छिपकर

कि इसने गिरवी रखे हैं अपने पंख
और बदले में पाई है
घर की सुख-शान्ति

पसीने की बूँदें जो बहती हैं एक भोर से
दिन के अवसान तक
इनसे मूल अदा नहीं होता
ये तो हैं सिर्फ़ ब्याज